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नि॒ष्षिध्व॑रीस्त॒ ओष॑धीरु॒तापो॑ र॒यिं त॑ इन्द्र पृथि॒वी बि॑भर्ति। सखा॑यस्ते वाम॒भाजः॑ स्याम म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

niṣṣidhvarīs ta oṣadhīr utāpo rayiṁ ta indra pṛthivī bibharti | sakhāyas te vāmabhājaḥ syāma mahad devānām asuratvam ekam ||

पद पाठ

निः॒ऽसिध्व॑रीः। ते॒। ओष॑धीः। उ॒त। आपः॑। र॒यिम्। ते॒। इ॒न्द्र॒। पृ॒थि॒वी। बि॒भ॒र्ति॒। सखा॑यः। ते॒। वा॒म॒ऽभाजः॑। स्या॒म॒। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» मन्त्र:22 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:31» मन्त्र:7 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:22


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के देनेवाले ईश्वर जैसे (ते) आपकी सृष्टि में (पृथिवी) भूमि (निष्षिध्वरीः) अत्यन्त मङ्गल करनेवाली (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधियों को (बिभर्त्ति) धारण वा पोषण करती है। (उत) और (ते) आपके (आपः) जल (रयिम्) लक्ष्मी को धारण करते हैं उसी (देवानाम्) सूर्य्य आदिकों में (महत्) सबसे बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) शत्रुओं के नाश करनेवाले को प्राप्त होकर (ते) आपके (वामभाजः) उत्तम कर्मों के सेवन करने वा श्रेष्ठ भोग भोगनेवाले (सखायः) मित्र हम लोग (स्याम) होवें ॥२२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे जगदीश्वर ! जिन आपने हम लोगों के सुख के लिये सृष्टि में अनेक प्रकार की ओषधियाँ और जल रचे, उन आपके हम लोग उपासना करनेवाले होवें और आपको छोड़ के दूसरे की उपासना कभी न करें ॥२२॥ इस सूक्त में दिन, रात्रि, विद्वान्, अन्तरिक्ष, पृथिवी, राजधर्म और ईश्वर के गुणवर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के संगति जाननी चाहिये ॥ यह ऋग्वेद की संहिता के तीसरे अष्टक में तीसरा अध्याय इकतीसवाँ वर्ग और तीसरे मण्डल में पचपनवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र यथा ते सृष्टौ पृथिवी निष्षिध्वरी ओषधीर्बिभर्त्ति। उतापि त आपो रयिं बिभर्त्ति तदेव देवानाम्महदेकमसुरत्वं प्राप्य ते वामभाजः सखायो वयं स्याम ॥२२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (निष्षिध्वरीः) नितरां मङ्गलकारिणीः (ते) तव (ओषधीः) सोमाद्याः (उत) अपि (आपः) जलानि (रयिम्) (श्रियम्) (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रदेश्वर (पृथिवी) (बिभर्त्ति) धरति पुष्यति वा (सखायः) सुहृदः सन्तः (ते) तव (वामभाजः) प्रशस्तकर्मसेविनश्श्रेष्ठभोगा वा (स्याम) (महत्) सर्वेभ्यो बृहत् (देवानाम्) सूर्य्यादीनाम् (असुरत्वम्) (एकम्) अद्वितीयम् ॥२२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे जगदीश्वर येन भवताऽस्माकं सुखाय सृष्ट्यां विविधा ओषधय आपो निर्मितास्तस्य ते वयमुपासका भवेम। भवन्तं विहायाऽन्यस्योपासनं कदाचिन्न कुर्य्यामेति ॥२२॥ अत्राऽहर्निशविद्वद्द्यावापृथिवी राजधर्मेश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यृक्संहितायां तृतीयाष्टके तृतीयोऽध्याय एकत्रिंशो वर्गस्तृतीये मण्डले पञ्चपञ्चाशत्तमं सूक्तञ्च समाप्तम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे जगदीश्वरा! तू आमच्या सुखासाठी सृष्टीत अनेक प्रकारची औषधी व जल निर्माण केलेले आहेस. त्यासाठी आम्ही तुझी उपासना करणारे व्हावे. त्यासाठी तुझी उपासना सोडून दुसऱ्या कुणाची उपासना कधी करू नये. ॥ २२ ॥